अरविन्द सिसौदिया
नानौता। भारत देश प्राचीन काल से ही वैभवशाली पंरपराओं का देश है। इन्हीं पंरपराओं के चलते ही देश की अलग पहचान है। लेकिन आज की आधुनिकता की दौड में शायद हम अपने प्राचीन काल से चली आ रही पंरपराओं को भुलाते जा रहे है। सावन मास में भी कई पंरपराओं का अपना स्थान है जिसमें पेडो पर रस्सी डालकर झूला झूलना, मेंहदी, हरी चूडियों को पहनने के साथ श्रृंगार करना प्रमुख है।
सावन माह में झूला झूलने की मान्यतांए -
मान्यता है कि जब भगवान श्री कृष्ण जब गोकुल छोडकर मथुरा चले गये थे। तां गोपियां उनके विछोह में गीत गाती हुई झूला झूलती हुई आपस में दुख बांटती थी। तब से सावन मास में झूला लगाने की पंरपरा चली आ रही है। इसके अलावा सावन माह में ही विवाहिताएं मायके जाती है। तथा वहां अपनी सहेलियों संग मिलकर अठखेलियां व खूब झूला झूलती थी। सावन के मौसम में मेहंदी लगाने और हरी चूडियों से सुहागिनें श्रृंगार करती है। इसके पीछे मान्यता है कि पूरे वर्ष सावन मास में ही हरियाली सबसे अधिक देखी जाती है।
धीरे धीरे लुप्त हो रही पंरपराए -
सावन मास में अब न तो झूले ही दिखते है और न मेहंदी लगाकर गीतों की गूंज ही सुनायी देती है। झूला न लगने का एक कारण जंगल व पेडो का कम होना व छोटे छोटे मकानों में जगह का न हो पाना भी माना जा रहा है।
सावन में गीतों से विरह वियोग दूर होता -
पुराने बुजुर्ग महिलाओं विमला देवी, सत्या सिंह, संतोष देवी आदि की मानें तो सावन में गाये जाने वाले गीतों के माध्यम से महिलांए अपने अंदर की पीडा को व्यक्त करती है। और अपना दुख आपस में बांट लेती है। तथा अवसाद की स्थिती खत्म होती है तथा एक-दूसरे के प्रति प्यार की भावना बढती है।