सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अध्यादेश को फिर से लाना संविधान के साथ छल या धोखा है। साथ ही यह लोकतांत्रिक विधायी प्रक्रियाओं का विनाश करने के समान है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि संविधान की धारा-123 के तहत राष्ट्रपति और धारा-213 के तहत राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी करने का निर्णय न्यायिक परीक्षण केदायरे से बाहर नहीं है।
बहुमत के आधार पर सात सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा कृष्ण कुमार बनाम बिहार मामले में लिए गए फैसले में कहा गया है अध्यादेश को सदन के पटल पर रखना जरूरी है वहीं न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने इसे महज एक निर्देशिका बताया है। वहीं चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने अपने फैसले में कहा कि इस सवाल को विधानसभा या संसद के लिए छोड़ देना चाहिए।
न्यायमूर्ति डीवाई चंदचूड़ द्वारा लिखे गए बहुमत वाले फैसले में कहा गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी करने का निर्देश का स्वरूप विधायी है और इसका इस्तेमाल तभी किया जा सकता है जब संसद या विधानसभा सत्र में न हो और वह भी तब जब राष्ट्रपति या राज्यपाल संतुष्ट हो।
अध्यादेश राष्ट्रपति या राज्यपाल को कानून बनाने का समान्तर अधिकार नहीं देता
राष्ट्रपति या राज्यपाल को इससे संतुष्ट होना चाहिए कि अध्यादेश को तत्काल जारी करने की दरकार है। अध्यादेश को सदन की पटल पर रखना होता है और सत्र खत्म होने के छह हफ्ते बाद यह अप्रभावी हो जाता है।
इसे पहले भी अप्रभावी किया जा सकता है अगर प्रस्ताव पारित हो जाए। अध्यादेश को वापस भी लिया जा सकता है। अध्यादेश राष्ट्रपति या राज्यपाल को कानून बनाने का सामान्तर अधिकार नहीं देता।
मंत्रिमंडल की सलाह पर ही राष्ट्रपति या राज्यपाल अपना फैसला लेते हैं। वहीं बहुमत से अलग न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने अपने फैसले में कहा है कि अध्यादेश को विधानसभा या संसद के पटल पर रखना जरूरी नहीं बल्कि निर्देशिका है।