सुंदर समाज की परिकल्पना तो हर कोई करता है, लेकिन कर्तव्यों का लबादा किसी और पर लादना चाहता है। अगर शहीद भगत सिंह और वीर शिवाजी जैसे देशभक्तों की माताओं ने भी ऐसा ही सोचा होता, तो शायद उनका नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित न होता। समाज की मान्यताएं, परंपराएं, आस्थाएं और विश्वास चरमरा कर टूट रहे हैं। ऐसी बातों को सोचकर मन दुखी हो जाता है। मन में बार-बार सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? इन सब समस्याओं का एक ही हल है, सामाजिक आदर्शों की पुनस्र्थापना, जो हमें अपने जन्म के साथ अपने परिवार से संस्कारों के रूप में मिलती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘संभव है कोई राष्ट्र समुद्र की लहरों को जीत ले, भौतिक तत्वों पर नियंत्रण कर ले, जीवन की उपयोगितावादी सुविधाओं को विकसित कर ले, परंतु इसके बावजूद हो सकता है कि उसे कभी यह बोध ही न हो सके कि जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को जीतना सीख लेता है, उसी में सर्वोच्च सभ्यता होती है।’
इसका सीधा अर्थ है, स्वार्थ से परे मनुष्य का कर्म सच्ची मानवता है। यह मानवता संस्कारों द्वारा ही पोषित होती है। प्राचीन समय में एक युग था सतयुग, जिसका आधार वे 16 संस्कार थे, जिनमें बंधकर मनुष्य धर्म, कर्म का पालन करता था। जो बालक संस्कारी है, उसके जीवन मूल्यों में आदर्शों का समन्वय होगा। जो समाज को केवल विकास की राह दिखाएगा। घर-बाहर, छोटे-बड़ों का लिहाज करते हुए कर्म में प्रवृत्त होकर वह स्वस्थ समाज का निर्माण करेगा। अगर हम एक बेहतर समाज की आशा करते हैं, तो उसका मुख्य कारण संस्कार ही हैं। इसके लिए आवश्यक है कि अपने भविष्य को जितना सुंदर और कल्याणकारी बनाना चाहते हैं, वैसे ही संस्कार अपने बच्चों को भी देने होंगे।