उनके हाथ में न पेंसिल है और न स्केल। सिर्फ अंगुलियों में फंसी कूंची की सहायता से कपड़ों पर राम-सीता विवाह के दृश्यों को उकेरते हैं मिथिला पेंटिंग विशेषज्ञ श्रवण पासवान। वे रंगों को पीपल की छाल, हल्दी, सीम के पत्ते, सीकट के फल, नीम, रातरानी, हरसिंगार के फूलों से तैयार करते हैं। श्रवण ने यह कला अपनी मां उर्मिला देवी से सीखी है। उनका पूरा परिवार ही इस पेशे से जुड़ा है। वे कहते हैं, ‘जब यह कला विदेश में बेहद लोकप्रिय हो गई, तो ऐसी औरतों ने भी अपने हुनर को आजमाने का प्रयास किया, जिन्होंने बाहरी दुनिया देखी ही नहीं थी।’ खुद श्रवण दसवीं पास हैं। वे मैथिली और हिंदी बोल पाते हैं। वे ग्राहकों के हाव-भाव से उनकी मांग को समझ जाते हैं। उनका बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है लेकिन वे उसे भी अपना यह हुनर सिखा रहे हैं। वे कहते हैं, ‘कला तो हमारे परिवार की रगों में मौजूद है। बेटा अपने किताबी ज्ञान का इस्तेमाल इस कला के प्रचार-प्रसार के लिए करेगा। उसकी व्यवसायिक शिक्षा इस काम में मदद करेगी।’ श्रवण पासवान का पूरा परिवार इसी पेशे पर आधारित है। परिवार में मां के अलावा एक और भाई, पत्नी और एक बेटा भी है। इन सभी की दिनचर्या पेंटिंग्स बनाने से शुरू होती है और इसी के साथ खत्म। मां और पत्नी प्राकृतिक रंग तैयार करती हैं, तो भाई और श्रवण पेंटिंग बनाते हैं। चूंकि इनकी पेंटिंग विदेश में अच्छे दामों में बिकती है, इसलिए पूरे परिवार का लालन-पालन भी इस कला से हो रहा है। प्रदर्शनियों में ये अपनी कला का प्रचार-प्रसार करने और ग्राहक तलाशने आते हैं। श्रवण और उनका परिवार बाजार से अच्छी तरह परिचित है, तभी इंजीनियरिंग पढ़ रहे बेटे को इस काम से जोड़ चुके
हैं।
नाम गुरु का, स्वाद शगुन का
पठानकोट से जम्मू की तरफ आते हुए बाड़ी ब्राह्मणा में एक बड़ा फूड प्लाजा नजर आता है ‘पहलवान दी हट्टी’ नाम से अर्थात पहलवान की दुकान। 1934 में दूध, दही, बर्फी और रबड़ी की छोटी सी दुकान से शुरू हुआ यह कारवां आज जम्मू के स्वाद की पहचान बन गया है। बेटियों के शगुन से लेकर बच्चों के मुंडन तक पहलवान की मिठाई तोहफे में दी जाती है। फरमाइश का आलम ये है कि जानी-मानी गजल गायिका मल्लिका पुखराज जब लंबे अरसे बाद जम्मू आईं तो उन्हें भी पहलवान की मिठाई का स्वाद याद आया। पहलवान दी हट्टी नाम से जम्मू सिटी में सबसे पहली दुकान खोलने वाले अनंत राम अबरोल जिन्हें सभी नन्तो शाह के नाम से पुकारते थे, ने यह नाम अपने गुरु मणि राम पहलवान को समर्पित किया, जिनसे उन्होंने लाहौर में रहकर काम सीखा था। नन्तो शाह की इस विरासत को उनकी पीढ़ियों ने आगे बढ़ाया और आज जम्मू में पहलवान दी हट्टी नाम से कई आउटलेट खुल चुके हैं। जहां न सिर्फ मिठाइयां बल्कि ब्रेकफास्ट से लेकर डिनर तक कई खास और स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते हैं।
भारतीय स्वाद का परिवार
बीकानेर वाला फूड्स प्राइवेट लिमिटेड का नाम आज सभी कीजुबान पर है। एक वक्त था जब वे बस नमकीन मिठाईवालों की तरह छोटी सी दुकान तक सीमित थे पर आज देश-विदेश में इनके स्वाद की तूती बोलती है।बीकानेर वाला समूह का ही एक और ब्रांड है ‘बिकानो’। बिकानो के डायरेक्टर मनीष अग्रवाल बताते हैं, ‘हमारे पूर्वजों ने जिस विजन के साथ बिजनेस की नींव रखी उसे आधुनिक दौर के हिसाब से आगे बढ़ाने के लिए हम प्रतिबद्घ हैं। इंडियन फूड मार्केट आज भी कई चुनौतियों से जूझ रहा है। लॉजिस्टिक की कमी और विदेशी स्टैंडर्ड पर खरा उतरना ऐसी चुनौती है जिससे निपटने के लिए हम सालों से प्रयोग कर रहे हैं। अपनी परंपरा और प्रयोगों के साथ हम न्यूजीलैंड, कनाडा, यूएसए, यूके, दुबई आदि देशों में अपने ब्रांड की पहुंच बना रहे हैं। बिकानो नाम से कैफे भी खुल रहे हैं।’ वे आगे कहते हैं, ‘अब हम टेक्नोलॉजी के बिना एक कदम नहीं चल सकते इसलिए हर प्लांट में आधुनिक तकनीक और मशीनरी को वरीयता दी जाती है।’ मनीष अग्रवाल के पूर्वजों ने दिल्ली आकर छोटी सी दुकान से शुरुआत की और आज यह बिजनेस दुनियाभर में फैल रहा है। मनीष के मुताबिक असली चुनौती यही है कि वे चाहे जहां भी रहें भारतीय स्वाद से ग्राहकों को कोई समझौता न करना पड़े और साथ ही उत्पाद हाइजेनिक और क्वॉलिटी मेंटेन रहे।
मिठाई से यूनिवर्सिटी तक
‘मेहनत करो, फल अपने आप मिलेगा। दूसरों की लकीर काटने या उन्हें नीचा दिखाने के बजाए अपनी लकीर को ऊंचा करने की सोचो।’ दादा बलदेव राज मित्तल जी के शब्दों में अपने परिवार की सफलता की कहानी सुनाते हैं लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के डायरेक्टर (पब्लिक रिलेशन) अमन मित्तल। अमन बताते हैं, ‘एक जमाना था दादा जी मिलेट्री कैंटीन के ठेकेदार की नौकरी करते थे। उन्हें हर तीन साल बाद ब्रिगेड के साथ एक शहर से दूसरे शहर जाना पड़ता। 1961 में उन्होंने जालंधर में कारोबार जमाने की ठानी और 500 रुपए उधार लेकर काम शुरू किया। एक ब्रिगेडियर से दुकान ‘स्वीट हाउस’ का उद्घाटन करवाया, तो उन्होंने अपनी पोती के नाम पर उसे ‘लवली स्वीट हाउस’ करने का सुझाव दिया। परिवार में किसी का भी नाम लवली नहीं है लेकिन आज यह नाम ब्रांड बन चुका है। उनके मोतीचूर के लड्डू खूब मशहूर हुए। काम अच्छा चल निकला था लेकिन फिर कुछ चोरियां हुईं और घाटे ऐसे पड़े कि परिवार को संघर्ष की आंधी ने घेर लिया। वो दिन भी देखे जब केवल एक समय का खाना ही जुट पाता था। जालंधर में दूध कम मिलता था तो अमृतसर से दूध लाने के लिए मेरे पिता व चाचा सुबह 3 बजे निकलते और सुबह 7 बजे तक वापस आते थे। जैसे-तैसे मिठाई का बिजनेस फिर खड़ा किया। 1991 तक मेरे पिता रमेश मित्तल व उनके भाई नरेश और अशोक मित्तल भी बिजनेस में आ गए। हमने बजाज की डीलरशिप लेने की सोची। उन दिनों राहुल बजाज स्वयं कारोबार देखते थे। हमारा आवेदन उन तक पहुंचने से पहले ही उनके मैनेजर ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि ‘बजाज के इतने बुरे दिन नहीं आए कि एक मिठाईवाले को डीलरशिप देनी पड़े।’ खैर इस बात से विचलित हुए बगैर पुन: सीधा पत्र डाला गया और हमें डीलरशिप मिल गई। 1996 में मारुति की डीलरशिप ली। 2001 में शिक्षा के क्षेत्र में पांव रखा और 2005 में लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी अस्तित्व में आई। इस सब विस्तार के साथ आज भी मिठाई का कारोबार जारी है और युवाओं की पसंद को ध्यान में रखते हुए एक बेक स्टूडियो शुरू किया गया है। इस सबके पीछे दादा जी का आशीर्वाद ही है। आज भी 20 सदस्यों का पूरा परिवाएक छत के नीचे रहता है, एक ही किचन है सबके लिए।'
रास आ गई बच्चों की दुनिया
अमोल अरोड़ा कैलिफोर्निया में नौकरी कर रहे थे। इधर भारत में उनके प्रोफेसर पापा और मां ने विदाउट पे लीव लेकर पंजाब से दिल्ली का रुख किया। वे बच्चों के लिए पढ़ाई का माहौल बदलना चाहते थे। इस तरह शुरूआत हुई शेमरॉक और शेमफोर्ड प्री स्कूल की। शेमरॉक और शेमफॉर्ड स्कूल के चेयरमैन एंड मैनेजिंग डायरेक्टर अमोल बताते हैं, ‘मम्मी-पापा ने 1989 में कॉलेज से विदाउट पे लीव लेकर यहां स्कूल खोला और नाम दिया शेमरॉक और शेमफोर्ड प्री स्कूल। परंपरागत तरीके से हटकर मनोरंजक तरीके से स्कूल में होने वाली पढ़ाई को सराहना मिली। देखते ही देखते स्कूल की कुछ और शाखाएं भी खुलने लगीं। मगर तब तक मैंने नहीं सोचा था कि मुझे फैमिली बिजनेस में अपना कॅरियर बनाना है।’ अमोल दिल्ली यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म करके एमबीए करने कैलिफोर्निया चले गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद अमोल वहीं जॉब करने लगे लेकिन इस दौरान ई-मेल्स के माध्यम से वे लगातार शेमरॉक और शेमफॉर्ड स्कूल से जुड़े रहे। मार्केटिंग स्ट्रेटजी तैयार करना, बेहतर आउटपुट, स्कूल के लिए फंडिंग और प्रचार-प्रसार सभी अमोल ही प्लान करते थे। 2002 में विदेश में बेहतर पैकेज पर जॉब करते हुए अमोल यह जिम्मेदारी उठा रहे थे। इसके बावजूद अमोल को कुछ कमी खल रही थी। इसी दौरान ऑफिस में बॉस ने उन्हें सजेस्ट किया कि दिल जिस काम में लगे, वही करो। स्कूल के नाम से तुम्हारे चेहरे पर एक चमक आ जाती है, तो क्यों न तुम पैरेंट्स के बिजनेस को ही और ऊंचाई पर ले जाओ। अमोल कहते हैं, ‘शुरुआत में जब फंडिग की प्रॉब्लम आती थी या फिर नए शहर में स्कूल को शुरुआती दौर में अच्छा रिस्पांस नहीं मिलता था, तब मेरी वाइफ मीनल मुझसे कहती थीं कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई हमसे? क्या हमारा फैसला सही है? मीनल खुद भी मैनेजमेंट की डिग्री लेकर एक अच्छी कंपनी की जॉब छोड़कर मेरे साथ जुड़ी थीं पर हमने हिम्मत नहीं हारी। पैरेंट्स को मेंटर बनाकर आगे बढ़ चले। भारत के अलावा नेपाल और बांग्लादेश में भी स्कूल की शाखाएं हैं।'
भूरी आंखों ने बनाई पहचान
‘मेरी ब्राउन आंखें मेरी पत्नी तनुश्री को बहुत अच्छी लगती थीं। वे मुझे ‘मिस्टर ब्राउन’ कहकर बुलाती थीं। मुझे भी उनका प्यार से दिया यह नाम पसंद है। पता नहीं था कि आगे चलकर यह नाम मेरी पहचान बनेगा,’ कहते हैं मिस्टर ब्राउन बेकरी के मालिक रामू गुप्ता। लखनऊ सहित एनसीआर, कानपुर जैसे शहरों में करीब बीस से ज्यादा आउटलेट खोल चुके रामू बताते हैं, ‘हम पेशे से हलवाई हैं और मिठाई व नमकीन बनाना और बेचना ही हमारा पुश्तैनी काम है। 1940 में पिता जी स्व.पीएल गुप्ता ने लखनऊ के डंडहिया बाजार में श्याम नमकीन एंड बेकर्स के नाम से मिठाई और नमकीन की दुकान शुरू की थी पर कुछ कारणों से दुकान बंद करनी पड़ी। 1949 में दुकान दोबारा शुरू की तब से लेकर आज तक दुकान चल रही है। फिर पढ़ाई खत्म करने के बाद वर्ष 1990 में मैं भी पिता जी के बिजनेस में हाथ बंटाने लगा। बिजनेस में कुछ नए प्रयोग करने की इच्छा से मैंने पिता जी से लखनऊ में अलग बेकरी बिजनेस शुरू करने की बात की। इस पर वे तुरंत राजी हो गए। जब पत्नी से इस विषय पर चर्चा की तो वह बहुत खुश हुईं क्योंकि वो काफी समय से मुझे बेकरी का बिजनेस शुरू करने की सलाह दे रही थीं। दिसंबर 2008 में मिस्टर ब्राउन बेकरी एंड फूड प्रोडक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड के नाम से पहला आउटलेट अलीगंज स्थित अपने निवास में खोला। हमारे बेकरी उत्पाद जल्द ही लोकप्रिय हो गए। दूसरा आउटलेट हजरतगंज में खोला।’ क्वालिटी को बेहतर बनाने के बारे में रामू बताते हैं, ‘मैं प्रोडक्ट्स की क्वालिटी को बेहतर बनाने के लिए समय-समय पर विदेशों में जाकर ट्रेनिंग लेता हूं। इतना ही नहीं, अमेरिका में एक क्रूज पर बेकरी में जॉब कर रहे विकास मलिक और प्रेम प्रसाद श्रीवास्तव, दिल्ली के ताज होटल में शेफ अंजलि मोहन और बंगलुरू में एक फाइव स्टार होटल में शेफ संदीप राना इस समय मेरे आउटलेट्स में प्रोफेशनल प्रोडक्शन का काम देख रहे हैं। पत्नी फूडिंग और फाइनेंस संभाल रही हैं। इन सबका सहयोग बिजनेस को बढ़ा रहा है। चार साल पहले हमने बकलावा स्वीट को लांच किया था जो आज लोगों की पसंद बन चुका है। शुद्ध शहद से बनने वाली यह स्वीट टर्की में इस्तांबुल में मैंने पहली बार खाई थी। यह मुझे इतनी पसंद आई कि तय कर लिया कि अब इसका स्वाद मेरे देश तक भी पहुंचेगा। मैं पापा के काम में हाथ बंटाता था और पत्नी और बेटे मेरे काम में हाथ बंटा रहे हैं। परिवार ही हमारी असली ताकत है।'
विरासत में वाद्य
मीनाक्षी वेलार घुटनों तक की साड़ी पहने मिट्टी में हाथ साने घटम को निखार रहीं हैं। वे उस पर तब तक चोट करती हैं जब तक उसकी ध्वनि सुर में न ढल जाए। उनके लिए यह रोजगार है, पति की याद और पुरखों की विरासत भी। मीनाक्षी के बेटे रमेश भी पुरखों की इस विरासत को बचाने के लिए सिंगापुर की नौकरी छोड़ आए हैं। ये घटम संगीत की दुनिया से गुम हो जाते यदि एक परिवार अपनी विरासत को न संभालता। 46 साल के यू. वी. के. रमेश कहते हैं, ‘मैं जब छोटा था तब कई संगीतकार, वादक और गायक भी घटम खरीदने आते थे। वे बहुत देर तक बैठकर संगीत से जुड़ी बातें करते। तभी से जानता था कि हम संगीत की परंपरा में कितने बड़े भागीदार हैं।’ रमेश का परिवार मदुरई से 45 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे मानामदुराई का इकलौता परिवार है जो मानामदुराई घटम बनाता है। परिवार में घटम बनाने की परंपरा उलगनाथ वेलार ने शुरू की जिसे आगे बढ़ाया उनके बेटे वेल्लाचामी वेलार ने। वेल्लाचामी वेलार के बेटे आंडवन और केशवन ने भी इसी परंपरा को अपनाया। केशवन की पत्नी मीनाक्षी आज इस परंपरा की सबसे मजबूत कड़ी हैं, जिन्हें दो वर्ष पहले राष्ट्रपति ने पुरस्कार से सम्मानित किया। उलगनाथ वेलार स्वयं भी भजन गाते थे। अपने भजनों को और सुरीला बनाने के लिए वे इसके साथ घटम बजाते थे। सुर का यह रास्ता आसान नहीं था। उन्होंने कुम्हार की तरह पहले घटम बनाना सीखा। फिर परिवार में भी यह हुनर बांटा। रमेश अपने परिवार की चौथी पीढ़ी हैं जो इस पुश्तैनी काम में लगे हैं। आज उनके परिवार में घटम बनाने वाले दो धुरंधर कारीगर हैं। पहले खुद रमेश हैं और दूसरी हैं 67 साल की उनकी मां मीनाक्षी। अपनी मां की प्रशंसा में रमेश कहते हैं, ‘पहले सिर्फ एक घड़ा बनता है। फिर उनके हाथों से तराशे जाने के बाद वो साधारण घड़ा ‘घटम’ में बदल जाता है।’ रमेश की 36 साल की पत्नी मोहना और 40 साल की बहन परमेश्वरी भी घटम बनाने और तराशने में दोनों को सहयोग देती हैं।